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ज़िन्दगी की जैसे यूह ही कॉल ड्राप हो गयी। (बड़े भाई आलोक को समर्पित)

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  चला था घर से , मिलने जिंदी को। मौत और मेरी यूह मुलाकात हो गयी। ज़िन्दगी की जैसे यूह ही कॉल ड्राप हो गयी। थीं बातें अभी बाकी बहुत सारी यूह ही अधूरी सी रहगयीं। चला था घर से , मिलने जिंदी को। मौत और मेरी यूह मुलाकात हो गयी। ज़िन्दगी की जैसे यूह ही कॉल ड्राप हो गयी। कुछ ख्याल थे आते जाते से , चलते रास्ते पे हवाओं से टकराते मुस्कुराते से, वो भी यूह ही छूट से गये। चला था घर से , मिलने जिंदी को। मौत और मेरी यूह मुलाकात हो गयी। ज़िन्दगी की जैसे यूह ही कॉल ड्राप हो गयी। जिंदी और मेरा बड़ा मस्त सा रिश्त था। वो मुझको परिस्तिथियां देती थी में उनको यादगार लम्हे बना देता था। लुका छुपी का खेल में जीत जाता था ,उन लम्हों को दोस्ती की तिजोरी में छुपा आता था। चला था घर से , मिलने जिंदी को। मौत और मेरी यूह मुलाकात हो गयी। ज़िन्दगी की जैसे यूह ही कॉल ड्राप हो गयी। देखता था कभी-कभी ज़िन्दगी को शाम में, जाम में, इठलाती किसी शोख हसीना के नाम में। कभी होती वो कोरी, कभी लिपटी सुनहरी रोशनी की दमक में, पर रहते थे एक दूसरे की भनक में। चला था घर से , मिलने जिंदी को। मौत और मेरी यूह मुलाकात हो गयी। ज़िन्...